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मत्स्य, कूर्म और वराह अवतार – किस ओर संकेत करते हैं?

भारतीय परम्परा में भगवान के पहले अवतार को मत्स्य यानी मछली के रूप में जाना जाता है। इसके बाद कछुए और फिर सूअर और इस तरह ये क्रम आगे बढ़ता है। किस ओर संकेत करते हैं ये अवतार?
क्रमिक विकास के बारे में जो कुछ भी आदि योगी ने बताया है, वह डार्विन के विकासवाद की परिकल्पना जैसा ही है। डार्विन ने अपने सिद्धांत को केवल डेढ़ सौ साल पहले प्रतिपादित किया था, लेकिन वही बात आज से करीब पंद्रह हजार वर्ष पहले आदि योगी शिव ने बता दी थी। दोनों ने ही एक जैसे क्रम का जिक्र किया है। क्रमिक विकास के बारे में बताते हुए आदि योगी ने कहा था कि जीवन का पहला रूप मत्स्य अवतार था।
क्रमिक विकास का सिद्धांत डार्विन का नहीं है, यह तो हमेशा से रहा है। हमने इसके पीछे के विज्ञान को समझा है और हम जानते हैं कि यह हमारे भीतर है। मैं अपने अनुभव से भी यही बात कह रहा हूं।
इसका अर्थ हुआ कि ईश्वर मत्स्य के रूप में प्रकट हुए। आपको पता ही है कि चाल्र्स डार्विन ने यह साबित करने की कोशिश की थी कि इस धरती पर जीवन का प्रथम रूप जल में ही पैदा हुआ, यानी यह रूप मछली का था। दूसरा अवतार कूर्म अवतार माना जाता है। इसका मतलब है कछुआ, जो उभयचर प्राणी है यानी वह जल में भी रह सकता है और थल में भी। डार्विन ने भी यही कहा। तीसरा अवतार वराह अवतार को माना जाता है। यह जंगली सुअर का रूप है, जिसे एक स्थूल स्तनधारी के रूप में जाना जाता है। चौथा अवतार नरसिंह अवतार को माना जाता है, जो आधे इंसान और आधे जानवर हैं। इसके बाद के अवतार संपूर्ण इंसान के रूप में आए, क्योंकि उसके बाद का जो विकास है, वह शारीरिक स्तर पर नहीं घटित हुआ।
उसके बाद आए प्रचंड और फुर्तीले परशुराम। पूरी तरह से विकसित, लेकिन बेहद हिंसक। उन्होंने अपनी मां तक का सिर काट डाला था। फिर अवतरित हुए शांति प्रिय राम – एक ऐसे इंसान जो बेहद सज्जन और एक-आयामी थे। इसके बाद जिनका अवतार हुआ, वे थे – प्रेममय कृष्ण, जिन्हें बहुआयामी माना जाता है। फिर ध्यान-मग्न रहने वाले बुद्ध ने अवतार लिया और उसके बाद अब बारी है एक दिव्यदर्शी व रहस्यवादी की, जिसका अवतार अभी होना है।


शरीर के बाद दूसरे पहलूओं का विकास हुआ
आदियोगी ने बताया कि विकास का सिर्फ पहला चरण शारीरिक था। एक बार जब शारीरिक विकास पूरा हो गया तो विकास की प्रक्रिया शारीरिक से बाकी दूसरे पहलुओं की ओर मुड़ गई। लेकिन चाल्र्स डार्विन ने इस धरती पर क्रमिक विकास की प्रक्रिया का अध्ययन सिर्फ एक शारीरिक प्रक्रिया के रूप में ही किया। शायद आधुनिक विज्ञान की कुछ मजबूरियां रही होंगी, जिनकी वजह से डार्विन विकास की प्रक्रिया की व्याख्या केवल शारीरिक प्रक्रिया के रूप में ही कर पाए। डार्विन हर चीज को बेहद बारीकी से देखने वाले वैज्ञानिक थे। उन्होंने विकास के दूसरे पहलुओं को भी कुछ हद तक तो निश्चित रूप से देखा और महसूस किया होगा। लेकिन उन्होंने उनका जिक्र शायद इसलिए नहीं किया, क्योंकि जब तक आप किसी चीज को प्रयोगशाला में साबित न कर दें, विज्ञान उसे सच नहीं मानता। अगर आप जीवन को गौर से देखें तो आप पाएंगे कि जो चीजें बेजान हैं, उनसे शुरुआती जीवन बनता है और फिर उससे आगे उस जीवन का क्रमिक विकास होता है। हमने हमेशा जीवन का ऐसे ही विकास देखा है। हो सकता है कहीं और ऐसा माना जाता हो कि इंसान को ईश्वर ने बना कर धरती पर भेज दिया और इस तरह से कुछ दिनों में दुनिया बन गई। लेकिन हमने इसे कभी इस तरह से नहीं देखा। हमने हमेशा यही माना है कि जीवन का क्रमिक विकास हुआ है। क्रमिक विकास का सिद्धांत डार्विन का नहीं है, यह तो हमेशा से रहा है। हमने इसके पीछे के विज्ञान को समझा है और हम जानते हैं कि यह हमारे भीतर है। मैं अपने अनुभव से भी यही बात कह रहा हूं। जो कोई भी भीतर की ओर देखता है, जिस किसी ने भी अपने अचेतन की पड़ताल की है, उसे टटोला है, वह साफ तौर पर जानता है कि जीवन का क्रमिक विकास हुआ है। जीवन बस यूं ही नहीं बन गया।